भारतेंदु हरिश्चंद्र (Bhartendu Harishchandra ka Jeevan Parichay)हिन्दी साहित्य जगत के युग प्रवर्तक कवि के रूप में जाने जाते हैं। सन 1857 से लेकर 1900 ईस्वी तक का काल, हिन्दी साहित्य जगत में भारतेंदु हरिश्चंद्र का काल माना जाता है।
वे सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी थी। उन्होंने ने अपनी प्रतिभा के बल पर साहित्य जगत में अमूल्य योगदान दिया। काव्य के प्रति रुचि उनके अंदर वचपन से ही थी। यह प्रेरणा उन्हें अपने पिता से मिली थी।
इनका मूल नाम हरिश्चंद्र था। हिन्दी साहित्यिक में अहम योगदान कारण वे बहुत कम उम्र में ही प्रसिद्ध हो गये। उनकी लोकप्रियता के कारण विद्वानों ने उन्हें ‘भारतेंदु` की उपाधि से सम्मानित किया गया।
उन्हें आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह के नाम से जाने जाते हैं। मात्र 35 वर्ष की आयु में उन्होंने हिन्दी जगत की महती सेवा की। हिन्दी साहित्य जगत में आधुनिक काल की शुरुआत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय से माना जाता है।
उन्होंने(Bharatendu Harishchandra ) हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में व्यापक रूप में प्रतिष्ठित करने में अहम भूमिका निभाई।
भारतेंदु हरिश्चंद्र के बारें में संक्षेप में (Bhartendu Harishchandra ka Jeevan Parichay in Hindi)
पूरा नाम | बाबू भारतेन्दु हरिश्चंद्र (Bhartendu Harishchandra) |
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म | 1850 ईस्वी में |
भारतेंदु हरिश्चंद्र की माता का नाम | पार्वती देवी |
भारतेंदु हरिश्चंद्र की पत्नी का नाम | मन्नो देवी |
सम्मान | ‘भारतेंदु` |
भारतेन्दु हरिश्चंद्र जीवन परिचय – BHARTENDU HARISHCHANDRA KA JEEVAN PARICHAY
आरंभिक जीवन –
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म वाराणसी में 9 सितंबर सन 1850 ईस्वी में हुआ था। उनके बचपन का नाम हरिश्चंद्र था। उनके पिता गोपाल चंद्र एक अच्छे कवि थे। मात्र 5 वर्ष की अवस्था में ही उनकी माता का निधन हो गया।
माता के निधन के कुछ वर्षों के बाद ही उनके पिता भी इस दुनियाँ से चल बसे । इस प्रकार बचपन में ही उनके सर से माँ बाप दोनो का साया उठ गया। जब उनकी उम्र मात्र 13 साल की थी तब उनका विवाह हो गया। उनकी पत्नी का नाम मन्नो देवी थी।
शिक्षा दीक्षा
कहते हैं की Bhartendu Harishchandra की प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुई। घर पर ही उन्होंने हिन्दी, बंगला और उर्दू का ज्ञान प्राप्त किया। उच्च शिक्षा के लिए इनका दाखिला क्वींस कॉलेज वाराणसी में हुआ।
अध्ययन के साथ साथ भ्रमण में भी उनकी खास रुचि थी। चार धाम में से एक ओडिसा के जगन्नाथ पुरी के यात्रा के बाद उन्होंने अपने आप को साहित्य के प्रति समर्पित कर दिया।
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भारतेंदु हरिश्चंद्र का साहित्यिक परिचय
कहते हैं की होनहार पुत्र के पाँव पालणे में भी दिख जाते हैं। हरिश्चंद्र जी की बाल्याबस्था से ही साहित्य के क्षेत्र में रुचि थी। घर में लिखने पढ़ने का माहौल तो पहले से था, जो उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला था।
उनके पिता गोपाल चंद्र जी एक अच्छे कवि थे। जो ‘गिरिधर दास’ नामक उपनाम से काव्य की रचना करते थे। इसका व्यापक प्रभाव हरिश्चंद्र के वाल-मन पर भी पड़ा। जब उनकी उम्र मात्र 7 वर्ष की थी तब उन्होंने दोहे के कुछ पंक्ति को लिखा।
लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुध्द सुजान।
वाणा सुर की सेन को हनन लगे भगवान।।
इस पंक्ति को पढ़कर Bhartendu Harishchandra के पिता बहुत प्रभावित हुए। उन्हें आभास हो गया की हरिश्चंद्र एक दिन बड़ा कवि बनेगा।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाएँ
भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी की रचनाओं में इनकी व्यापक रचनात्मक प्रतिभा की छाप साफ दिखाई पड़ती है। उनकी रचनाओं में भक्तिरस एवं शृंगाररस की प्रधानता मिलती है। उनकी प्रमुख काव्य रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं –
प्रेममालिका, प्रेम माधुरी, प्रेम-तरंग, प्रेम-प्रलाप, प्रेम-फुलवारी, कृष्णचरित्र, राग-संग्रह, होली, फूलों का गुच्छा,सुमनांजलि, दानलीला आदि प्रमुख हैं।
इसके अलावा उन्होंने हास्य व्यंग की भी रचना की जिसमें बन्दर सभा और बकरी विलाप का नाम आता है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की भाषा शैली
हिन्दी साहित्य जगत के भाषा और साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने अमूल्य योगदान दिया। उन्होंने अपनी रचनाओं में खड़ी बोली khadi boli को प्राथमिकता दी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने गद्य साहित्य की रचना इस भाषा में की।
इस प्रकार उन्होंने अपनी भाषा शैली के दम पर हिन्दी गद्य साहित्य को विशेष रूप से समृद्धि प्रदान की। इन्होंने कविता, कहानी, नाटक के अलावा चौपाई, दोहे, छंद और सवैया आदि को भी अपनी रचनाओं में स्थान दिया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र के मौलिक नाटक
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कुल 17 नाटक लिखे हैं। जिसमें से 9 नाटक उनके मौलिक नाटक माने जाते हैं। उनकी प्रसिद्धि के कारण ही सन 1880 ईस्वी में उन्हें ‘भारतेंदु` की उपाधि से अलंकृत किया गया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविताएं
- मुकरियाँ,
- गंगा-वर्णन,
- चूरन का लटका,
- चने का लटका,
- हरी हुई सब भूमि,
- परदे में क़ैद औरत की गुहार,
- ऊधो जो अनेक मन होते,
- रोअहूं सब मिलिकै
पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन
लेखन के साथ-साथ उन्हें सम्पादन में भी रुचि थी। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने कई पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। उन्होंने मात्र 18 साल की उम्र में ही कवि-वचनसुधा नामक पहली पत्रिका निकली। उसके बाद उन्होंने हरिश्चन्द्र और ‘बाल बोधिनी’ नामक पत्रिकाएँ का प्रकाशन किया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की राष्ट्रीय भावना
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भारतीय नवजागरण के अग्रदूत की भी भूमिका निभाई। उनके अंदर देशभक्ति की भावना भरी हुई थी। उन्होंने अपनी लेखनी द्वारा भारत की गुलामी, गरीवी और शोषण के खिलाफ जन-जागरण का काम किया।
कहा जाता है की इस कारण उन्हें अंग्रेजी हुकूमत के गुस्से का सामना भी करना पड़ा। हिन्दी साहित्य जगत की महती सेवा के अलावा उन्होंने देश व समाज उत्थान में भी अग्रणी भूमिका निभाई। भारतेन्दु हरिश्चंद्र बहुत ही उदार प्रकृति के महापुरुष थे।
लाचार और दिन-हीन की दुर्दशा से वे तुरंत ही व्यथित हो जाते थे। वे अपनी आय का ज्यादा भाग उनकी सेवा में खर्च कर देते थे। कहते हैं की इस कारण से उन्हें अपने जीवन के अंतिम समय में कर्ज के बोझ से चिंतित होना पड़ा था।
इस प्रकार हिन्दी साहित्य की सेवा के साथ समाज सेवा भी अनवरत चलती रही। उन्होंने ‘तदीय समाज` की स्थापना के द्वारा वैष्णव भक्ति का प्रचार भी किया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र का निधन
भारतेन्दु साहब युवावस्था में ही क्षय रोग से ग्रसित हो गये। उस दौर में यह एक जानलेवा रोग माना जाता था। क्योंकि उस बक्त में इस रोग का कोई सफल इलाज नहीं था। धीरे धीरे इनकी आर्थिक स्थिति भी दयनीय हो गयी।
इस प्रकार मात्र 35 वर्ष की अल्प आयु में ही सन 1885 ईस्वी में उनका निधन हो गया। भारतेन्दु हरिश्चंद्र भले ही आज हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन हिन्दी साहित्य जगत में सितारे के रूप में सदा वे चमकते रहेंगे।
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न :
भारतेंदु हरिश्चंद्र को नर कवि की संज्ञा किसने दी?
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन्हें कवि की संज्ञा किसने दी।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की मृत्यु कब हुई?
भारतेंदु हरिश्चंद्र की 35 वर्ष की अल्प आयु में ही सन 1885 ईस्वी में इनका निधन हो गया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र को भारतेंदु की उपाधि किसने दी?
1880 ई.के दशक में पत्रकारों एवं साहित्यकारों ने उन्हें ’भारतेंदु’ की उपाधि से सम्मानित किया था।
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